थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
ज़िंदगी भी हमें दरकार थी मरने के लिए
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कोई तस्वीर बना ले कि तुझे याद रहें
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन
तख़्लीक़ ख़ुद किया था कल अपने में एक घर
खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
पर्दा जो उठा दिया गया है
उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी