इस इश्क़ में न पूछो हाल-ए-दिल-ए-दरीदा
तुम ने सुना तो होगा वो शेर 'मुसहफ़ी' का
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उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
कहाँ मैं और कहाँ गोशा-नशीनी का ये एलान
चाहे हैं तमाशा मिरे अंदर कई मौसम
कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं
पर्दा जो उठा दिया गया है
किसी सूरत ये नुक्ता-चीनियाँ कुछ रंग तो लाईं
चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है