चाहे हैं तमाशा मिरे अंदर कई मौसम
लाओ कोई सहरा मिरी वहशत के बराबर
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थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
कहाँ मैं और कहाँ गोशा-नशीनी का ये एलान
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं