ये न देखो कि मिरे ज़ख़्म बहुत कारी हैं
ये बताओ कि मिरा दुश्मन-ए-जाँ कैसा है
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चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
जी-भर के सितारे जगमगाएँ
इस इश्क़ में न पूछो हाल-ए-दिल-ए-दरीदा
गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
इक ख़्वाब है ये प्यास भी दरिया भी ख़्वाब है
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
कोई तस्वीर बना ले कि तुझे याद रहें
इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है