क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता
ये रंग-ए-मुलाक़ात समझ में नहीं आता
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Habib Jalib
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एक दिल है एक हसरत एक हम हैं एक तुम
मेरा हाल-ए-ज़ार तो देखा मगर
जब तक अपने दिल में उन का ग़म रहा
मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए
दिल झुका माइल तबीअत हो गई
साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है
शेख़ को जन्नत मुबारक हम को दोज़ख़ है क़ुबूल
ये सदमा जीते जी दिल से हमारे जा नहीं सकता
मौत ही आप के बीमार की क़िस्मत में न थी
किसी को भेज के ख़त हाए ये कैसा अज़ाब आया
सो हश्र में लिए दिल-ए-हसरत मआब में