मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
मुनफ़रिद हम ग़म-ए-हालात लिए फिरते हैं
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ये ठीक है कि बहुत वहशतें भी ठीक नहीं
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
मुझ से मुख़्लिस था न वाक़िफ़ मिरे जज़्बात से था
कष्ट
तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
फूलों में वो ख़ुशबू वो सबाहत नहीं आई
तिरे जैसा मेरा भी हाल था न सुकून था न क़रार था
इतना पसपा न हो दीवार से लग जाएगा
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
किसी को साल-ए-नौ की क्या मुबारकबाद दी जाए