मेरे साथ सु-ए-जुनून चल मिरे ज़ख़्म खा मिरा रक़्स कर
मेरे शेर पढ़ के मिलेगा क्या पता पढ़ के घर कोई पा सका?
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इतराता गरेबाँ पर था बहुत, रह-ए-इश्क़ में कब का चाक हुआ
आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
जिस दिन से गया वो जान-ए-ग़ज़ल हर मिसरे की सूरत बिगड़ी
क्या क्या न पढ़ा इस मकतब में, कितने ही हुनर सीखे हैं यहाँ
दिल तो सादा है तेरी हर बात को सच्चा मानता है
अलग अलग तासीरें इन की, अश्कों के जो धारे हैं
रो रो के बयाँ करते फिरो रंज-ओ-अलम ख़ूब
इतना करम इतनी अता फिर हो न हो
ख़त जो तेरे नाम लिखा, तकिए के नीचे रखता हूँ
बोल पड़ता तो मिरी बात मिरी ही रहती