ऐ बख़्त! मज़े कुछ तो उठाऊँ मैं भी
लज़्ज़त जो मिटाने में है पाऊँ मैं भी
कुछ तू ने मिलाया मुझे ख़ाक-ओ-ख़ूँ में
कुछ ख़ाक में अब ख़ुद को मिलाऊँ मैं भी
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दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
तैरे गीतों की लय अरे तौबा
अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता
कुछ फ़ैज़ तो मैं ने भी लुटाया बारे
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
सुनने वाले फ़साना तेरा है
शबाब नाम है उस जाँ-नवाज़ लम्हे का
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही