है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
इक चमन जिस में गुल नहीं खिलते
चाहता हूँ कि कुछ लिखूँ इस पर
लेकिन अल्फ़ाज़ ही नहीं मिलते
Allama Iqbal
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सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
कोई जंगल में गा रहा है गीत
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
चाँदनी, तारे, अब्र के टुकड़े
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ
तस्कीन-ए-ग़म-ए-दिल के लिए जीता हूँ
वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही
दिल के अरमान दिल को छोड़ गए