जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
गुज़री इक माह-रू बराबर से
भर के अपनी नज़र में कुछ किरनें
उस ने सीने में डाल दीं मेरे
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रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
गुलशन-ए-आरज़ू की दीद के ब'अद
ग़म-ए-दिल का इलाज दुनिया में
तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
सोते में कोई आह भरी तो होगी
इस मईशत के साए में हमदम