इस मईशत के साए में हमदम
अच्छी सूरत है वो भी जीने की
जिस में दो चार दिन की रोटी मिले
और सज़ा साल छे महीने की
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गोशा-ए-बाग़ और बज़्म-ए-तरब
शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
आईना-ए-निगाह में अक्स-ए-शबाब है
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
आता नहीं साँसों में मज़ा पीने का
याद-ए-माज़ी अज़ाब है या-रब
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
पिहना-ए-आसमाँ पे हैं तारी उदासियाँ
बातें करने में फूल झड़ते हैं
फुवार, अब्र, परिंदों के गीत, मस्त हवा
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम