इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
काश मैं जाम-ए-शेर भर सकता!
ऐ शब-ए-मह के मुंतशिर जल्वो!
काश मैं तुम को नज़्म कर सकता
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मौत की सी पुर-सुकूँ वीरानियाँ
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
नींद आती है इस तरह शब को
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
जी को नाहक़ निढाल करते हो
उजड़ी दुनिया को बसाया है ज़रा देखो तो
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
सोते में कोई आह भरी तो होगी
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है