जी को नाहक़ निढाल करते हो
रूह को पाएमाल करते हो
आदमी और गुनाह से परहेज़!
तुम भी 'अख़्तर' कमाल करते हो
Wasi Shah
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वो दिल नहीं रहा वो तबीअत नहीं रही
किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
गोशा-ए-बाग़ की मुलाक़ातें
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
ये आरज़ुएँ ये जोश-ए-अलम ये सैल-ए-नशात
आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ