इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
ये आग मोहब्बत में भी पैदा न हुई
अल्लाह-रे माबूद-ए-एहसास-ओ-ख़याल
वो सुब्ह जो मतला पे हुवैदा न हुई
Habib Jalib
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शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
सुना के अपने ऐश-ए-ताम की रूदाद के टुकड़े
आब-ए-दरिया में है जिस तरह रवानी पिन्हाँ
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
ये आज की दुनिया भी है मरने वाली
फ़ज़ा है नूर की बारिश से सीम-गूँ इस वक़्त
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
इस मईशत के साए में हमदम
मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
हर वक़्त नौहा-ख़्वाँ सी रहती हैं मेरी आँखें
साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं