मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
अगर सफ़ीना हो नाज़ुक तो यूँही खेते हैं
इन आँसुओं ही से ज़ीनत है तेरे आरिज़ की
ये अश्क-ए-ख़ूँ तिरे रुख़ पर बहार देते हैं
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दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
हमेशा जागते ही जागते सहर कर दी
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
किसी ख़याल में मदहोश जा रहा था मैं
फ़ज़ा उमडी हुई है इक छलकते जाम की मानिंद
बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
शोले भड़काओ देखते क्या हो
लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
सच तो ये है जहाँ में मेरे ब'अद