बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
बहुत वो हैं जो फ़रेब-ए-उमीद में हैं मगन
ज़माना मस्त है इंसान का लहू पी कर
हम अपने ख़ून-ए-जिगर की कशीद में हैं मगन
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है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
इक तीर कलेजे में पिरोया हम ने
क़ल्ब ज़िंदा है लफ़्ज़ हैं बे-जान
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
पुर-कैफ़ ज़ियाएँ होती हैं पुर-नूर उजाले होते हैं
सीना ख़ूँ से भरा हुआ मेरा
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
नसीम, फूलों की रौनक़, खिले हुए तारे
हर तरफ़ एक बे-हिजाबी है