आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
सहते सहते हम को आख़िर रंज सहना आ गया
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मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
उन में रहती थी इक हँसी बन कर
रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब है
तिरी नाज़ुक और लाँबी उँगलियाँ
मौत की सी पुर-सुकूँ वीरानियाँ
इधर दिमाग़ हैं साकित दिलों को सकता है
इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
नींद आती है इस तरह शब को
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
हो के बे-फ़िक्र तान उड़ाए जा