तेरी नाज़ुक और लाँबी उँगलियाँ
साज़ के तारों को जब करती हैं मस
झूमने लगती है ज़ोहरा अर्श पर
दिल पुकार उठता है बस लिल्लाह! बस
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ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं
हर तरफ़ एक बे-हिजाबी है
इस हाथ से जो कुछ मैं लिया करता हूँ
फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में
बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
शोले भड़काओ देखते क्या हो