इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
जो इस तरह से सुनाता है नग़्मा-ए-रंगीं
जहाँ रुबाब की आवाज़ कान में आई
किसी की याद ने सीने में बिजलियाँ भर दीं
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उजड़ी दुनिया को बसाया है ज़रा देखो तो
है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
कर दिया हाफ़िज़े में हश्र बपा
आफ़ात-ओ-हवादिस से भरी है दुनिया
दिल के अरमान दिल को छोड़ गए
फुवार, अब्र, परिंदों के गीत, मस्त हवा
हवाएँ ख़ुनुक चाँदनी पुर-सुकूँ
नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
सुनने वाले फ़साना तेरा है
मैं दिल को चीर के रख दूँ ये एक सूरत है
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं