मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
अपनी आवाज़ को उठाती है
थाम लेता हूँ दिल को मैं लेकिन
मुँह से तौबा निकल ही जाती है
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मोहब्बत है अज़िय्यत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
चाँदनी, तारे, अब्र के टुकड़े
ये हसीन फ़ितरत के हुस्न का अनीला-पन
मुतरिब-ए-दिल की वो तानें क्या हुईं
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता
शबाब नाम है उस जाँ-नवाज़ लम्हे का
इस हाथ से जो कुछ मैं लिया करता हूँ
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
जो दाग़ बन के तमन्ना तमाम हो जाए
याद-ए-माज़ी अज़ाब है या-रब
गोशा-ए-बाग़ की मुलाक़ातें