सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
छाया है दहर पर शब-ए-महताब का फ़ुसूँ
आँखें खुली हैं तारों की बेदार है फ़ज़ा
ऐसे में भी जो सोए मैं अब इस को क्या कहूँ
Anwar Masood
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ये शीरीं राग मेरे हाफ़िज़े को जगमगाता है
आसूदगी-ए-ज़ात नहीं हो सकती
हल्की हल्की फुवार के दौरान में
तिरा आसमाँ नावकों का ख़ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
ये साग़र-ए-ग़म की गर्दिश है सहबा-ए-तरब का दौर है ये
ग़म-ज़दा हैं मुब्तला-ए-दर्द हैं नाशाद हैं
नींद आती है इस तरह शब को
ये हसीन फ़ितरत के हुस्न का अनीला-पन
बुत लाखों मोहब्बत में तराशे ऐसे
पिहना-ए-आसमाँ पे हैं तारी उदासियाँ
जाँ-सिपारी के भी अरमाँ ज़िंदगी की आस भी
कर दिया हाफ़िज़े में हश्र बपा