सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
ज़ौक़-ए-नाकामी फ़साना हो गया
ग़म न मरने का न जीने की ख़ुशी
आह! ऐ 'अख़्तर' मुझे क्या हो गया?
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अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
ऐ बख़्त! मज़े कुछ तो उठाऊँ मैं भी
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
आसूदगी-ए-ज़ात नहीं हो सकती
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
ग़म-ए-दिल का इलाज दुनिया में
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
आब-ए-दरिया में है जिस तरह रवानी पिन्हाँ