सुब्ह की तनवीर बिन कर आई वो नाज़ुक-ख़िराम
हँस के बोली मेरे बादा-ख़्वार शाएर को सलाम
ये कहा और कह के यूँ नज़रों से ओझल हो गई
जैसे छुप जाए अँधेरी रात में रंगीन शाम
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ये साग़र-ए-ग़म की गर्दिश है सहबा-ए-तरब का दौर है ये
जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूँ हैं आज आँखें
फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
ये हसीन फ़ितरत के हुस्न का अनीला-पन
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
तैरे गीतों की लय अरे तौबा
सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
अपनी बहार पे हँसने वालो कितने चमन ख़ाशाक हुए
पुर-कैफ़ ज़ियाएँ होती हैं पुर-नूर उजाले होते हैं
आफ़ात-ओ-हवादिस से भरी है दुनिया