ये शीरीं राग मेरे हाफ़िज़े को जगमगाता है
जो देखे थे कभी आँखों ने वो नक़्शे दिखाता है
मैं इक लम्हा नज़ारा कर लूँ अपने अहद-ए-माज़ी का
ठहर ओ ख़ुश-नवा मुतरिब! मुझे कुछ याद आता है
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रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
जब से मुँह को लग गई 'अख़्तर' मोहब्बत की शराब
इस में कोई मिरा शरीक नहीं
आफ़ात-ओ-हवादिस से भरी है दुनिया
शोले भड़काओ देखते क्या हो
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
कुछ फ़ैज़ तो मैं ने भी लुटाया बारे
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
किसी ख़याल में मदहोश जा रहा था मैं