रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
देखना आसमाँ के तारों का
लौह-ए-दिल पर उभार देता है
नक़्श गुज़री हुई बहारों का
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जी को नाहक़ निढाल करते हो
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
ये साग़र-ए-ग़म की गर्दिश है सहबा-ए-तरब का दौर है ये
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
कोई जंगल में गा रहा है गीत
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
पिहना-ए-आसमाँ पे हैं तारी उदासियाँ
फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे