फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
ख़राब-ए-साग़र-ए-बे-बादा हैं ख़ुदा रक्खे
हमारी हुस्न-परस्ती भी ख़ूब शय है कि हम
हसीं ग़मों के भी दिल-दादा हैं ख़ुदा रक्खे
Allama Iqbal
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सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
हवाएँ ख़ुनुक चाँदनी पुर-सुकूँ
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम
ये मुलाक़ात लूटे लेती है
तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
नींद आती है इस तरह शब को
उन में रहती थी इक हँसी बन कर