हवाएँ ख़ुनुक चाँदनी पुर-सुकूँ
वफ़ूर-ए-मसर्रत से सरशार हूँ
ये ख़्वाहिश है इस वक़्त दिल में कि मैं
गुज़रते हुए वक़्त को रोक लूँ
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आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
हवा थी ठंडी ठंडी चाँदनी थी और दरिया था
ये साग़र-ए-ग़म की गर्दिश है सहबा-ए-तरब का दौर है ये
क्या ख़बर थी इक बला-ए-ना-गहानी आएगी
मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
बहुत से इशरत-ए-नौ-रोज़-ओ-ईद में हैं मगन
सुनने वाले फ़साना तेरा है
तमाम उम्र मैं आँसू बहाऊँगा 'अख़्तर'
हमेशा जागते ही जागते सहर कर दी
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ