हमेशा जागते ही जागते सहर कर दी
कभी हँसा कभी आहें भरीं कभी रोया
बना के चाँद को अपना गवाह कहता हूँ
मैं आज तक शब-ए-महताब में नहीं सोया
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इक तीर कलेजे में पिरोया हम ने
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
ख़्वाहिश-ए-ऐश नहीं दर्द-ए-निहानी की क़सम
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
शोले भड़काओ देखते क्या हो
सीना ख़ूँ से भरा हुआ मेरा
जो हो न सका हम से वो कर जाओ तुम
जी को नाहक़ निढाल करते हो
हर वक़्त नौहा-ख़्वाँ सी रहती हैं मेरी आँखें
मेरे रुख़ से सुकूँ टपकता है
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल