हमेशा वक़्त-ए-सहर जब क़रीब होता है
हवाएँ चलती हैं सारा जहान सोता है
तुझे ख़बर नहीं ओ ग़म से बे-ख़बर! उस वक़्त
तिरे पड़ोस में इक ग़म-नसीब रोता है
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मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
एक सब्र-आज़मा जुदाई है
फ़ज़ा उमडी हुई है इक छलकते जाम की मानिंद
नींद आती है इस तरह शब को
शबाब नाम है उस जाँ-नवाज़ लम्हे का
रंग ओ बू में डूबे रहते थे हवास
इधर दिमाग़ हैं साकित दिलों को सकता है