किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
हाए क्या बे-कसी की घड़ियाँ थीं
थे फ़लक पर सितारे बिखरे हुए
गोद में आँसुओं की लड़ियाँ थीं
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रगों में दौड़ती हैं बिजलियाँ लहू के एवज़
दिन मुरादों के ऐश की रातें
हमेशा वक़्त-ए-सहर जब क़रीब होता है
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
चीर कर सीने को रख दे गर न पाए ग़म-गुसार
रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब है
तिरा आसमाँ नावकों का ख़ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
ये साग़र-ए-ग़म की गर्दिश है सहबा-ए-तरब का दौर है ये
बुत लाखों मोहब्बत में तराशे ऐसे
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'