रगों में दौड़ती हैं बिजलियाँ लहू के एवज़
शबाब कहते हैं जिस चीज़ को क़यामत है
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है ग़म-ए-रोज़गार का मौज़ूअ
उजड़ी दुनिया को बसाया है ज़रा देखो तो
इक टीस कलेजे को मसलती ही रही
आता नहीं साँसों में मज़ा पीने का
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
ये मुलाक़ात लूटे लेती है
उमर भर जीने की तोहमत भी उठेगी या-रब
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
फ़ज़ा उमडी हुई है इक छलकते जाम की मानिंद
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
आसूदगी-ए-ज़ात नहीं हो सकती
ख़ूँ-भरे जाम उंडेलता हूँ मैं