पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
मिरा शगूफ़ा-ए-उम्मीद क्यूँ नहीं खिलता?
जो इश्क़ पाते हैं कसरत से हम किताबों में
वो वाक़िआत की दुनिया में क्यूँ नहीं मिलता
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ये मुलाक़ात लूटे लेती है
आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
एक सब्र-आज़मा जुदाई है
तिरी नाज़ुक और लाँबी उँगलियाँ
कोई जंगल में गा रहा है गीत
उमर भर जीने की तोहमत भी उठेगी या-रब
तब्अ इशरत-पसंद रखता हूँ
नसीम, फूलों की रौनक़, खिले हुए तारे
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम