नींद आती है इस तरह शब को
जैसे पीने में नश्शा चढ़ता है
सुब्ह इस तरह सो के उठते हैं
जैसे सैलाब आगे बढ़ता है
Allama Iqbal
Habib Jalib
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ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं
क्या ख़बर थी इक बला-ए-ना-गहानी आएगी
मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
ऐ बख़्त! मज़े कुछ तो उठाऊँ मैं भी
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ
तैरे गीतों की लय अरे तौबा
गोशा-ए-बाग़ और बज़्म-ए-तरब
ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
जिन को है ऐश-ए-दिल मयस्सर, वो