उन में रहती थी इक हँसी बन कर
वो मसर्रत जो अब नसीब नहीं
यही आँखें जो आज रोती हैं
कभी 'अख़्तर' हँसा भी करती थीं
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मोहब्बत! ऐ कि तू देवी है ग़म की रोए जा
उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
मैं किसी से अपने दिल की बात कह सकता न था
तमाम उम्र मैं आँसू बहाऊँगा 'अख़्तर'
मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
जो हो न सका हम से वो कर जाओ तुम
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
तिरा आसमाँ नावकों का ख़ज़ीना हयात-आफ़रीना हयात-आफ़रीना
ग़म-ए-हयात कहानी है क़िस्सा-ख़्वाँ हूँ मैं
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं