वो बहर-ए-कर्ब-ओ-अलम का ख़ुलासा है यकसर
निचोड़ है वो तपिश की उबलती नदियों का
मिरे वजूद को जिस दर्द ने तराशा है
वो दर्द राज़ है लाखों सिसकती सदियों का
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मोहब्बत है अज़िय्यत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है
जीने की ब-ज़ाहिर नहीं कुछ आस हमें
ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
ये मुलाक़ात लूटे लेती है
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
क्या ख़ाक करम है जो मुझे तू बख़्शे
क्या ख़बर थी इक बला-ए-ना-गहानी आएगी
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
हमेशा जागते ही जागते सहर कर दी
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
एक सब्र-आज़मा जुदाई है