क्या ख़ाक करम है जो मुझे तू बख़्शे
वल्लाह सितम है जो मुझे तू बख़्शे
बख़़शुंगा न मैं तेरे जहाँ को या-रब
तुझ को भी क़सम है जो मुझे तू बख़्शे
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हयात इंसाँ की सर ता पा ज़बाँ मालूम होती है
सुनने वाले फ़साना तेरा है
शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
फ़ज़ा है नूर की बारिश से सीम-गूँ इस वक़्त
ऐ बख़्त! मज़े कुछ तो उठाऊँ मैं भी
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं
मेरे रुख़ से सुकूँ टपकता है
तैरे गीतों की लय अरे तौबा
इस में कोई मिरा शरीक नहीं