मैं किसी से अपने दिल की बात कह सकता न था
अब सुख़न की आड़ में क्या कुछ न कहना आ गया
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किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
चीर कर सीने को रख दे गर न पाए ग़म-गुसार
वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
इस में कोई मिरा शरीक नहीं
वो बहर-ए-कर्ब-ओ-अलम का ख़ुलासा है यकसर
हवा थी ठंडी ठंडी चाँदनी थी और दरिया था
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
सरशार हूँ छलकते हुए जाम की क़सम
हरगिज़ नहीं जीने से दिल-ए-ज़ार ख़फ़ा
गुलशन-ए-आरज़ू की दीद के ब'अद