आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
मुझ से छुप कर मिरी तस्वीर बनाने वाले
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कभी ज़बाँ पे न आया कि आरज़ू क्या है
ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
गुज़रना है जी से गुज़र जाइए
ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी
मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं
मैं सफ़र में हूँ मगर सम्त-ए-सफ़र कोई नहीं
मिरा फ़साना हर इक दिल का माजरा तो न था
लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं
तू कहानी ही के पर्दे में भली लगती है
मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
कैसे समझाऊँ नसीम-ए-सुब्ह तुझ को क्या हूँ मैं