ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
दिल-ए-शोरीदा थक कर सो गया क्या
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ना-उमीदी हर्फ़-ए-तोहमत ही सही क्या कीजिए
बंद कर दे कोई माज़ी का दरीचा मुझ पर
लब-ए-सुकूत पे इक हर्फ़-ए-बे-नवा भी नहीं
किस को फ़ुर्सत थी कि 'अख़्तर' देखता मेरी तरफ़
ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
बंद रक्खोगे दरीचे दिल के यारो कब तलक
हर मौज गले लग के ये कहती है ठहर जाओ
किस जुर्म-ए-आरज़ू की सज़ा है ये ज़िंदगी
सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा
कैसे समझाऊँ नसीम-ए-सुब्ह तुझ को क्या हूँ मैं