बार-हा तू ने ख़्वाब दिखलाए
बार-हा हम ने कर लिया है यक़ीं
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मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं
कोई सुनता ही नहीं किस को सुनाने लग जाएँ
जैसे पानी पे नक़्श हो कोई
हवा भी चाहिए और रौशनी भी
कुछ फ़ासला नहीं है अदू और शिकस्त में
अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ
हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था
हैरत के दफ़्तर जाऊँ
क़रार-ए-गुम-शुदा मेरे ख़ुदा कब आएगा
ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी
मयस्सर से ज़ियादा चाहता है