हवा भी चाहिए और रौशनी भी
हर इक हुज्रा दरीचा चाहता है
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जैसे पानी पे नक़्श हो कोई
ये पूछ आ के कौन नसीबों जिया है दिल
अंधा सफ़र है ज़ीस्त किसे छोड़ दे कहाँ
बदन मल्बूस में शोला सा इक लर्ज़ां क़रीन-ए-जाँ
कोई इल्ज़ाम मेरे नाम मेरे सर नहीं आया
ये कौन सी जगह है ये बस्ती है कौन सी
खुली और बंद आँखों से उसे तकता रहा मैं भी
ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए'तिबार फिर
क़रार-ए-गुम-शुदा मेरे ख़ुदा कब आएगा
हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था
हैरत से देखता हुआ चेहरा किया मुझे
इश्क़ इक ऐसी हवेली है कि जिस से बाहर