इक मर्द-ए-तवाना को जो साइल पाया
की मैं ने मलामत और बहुत शरमाया
बोला कि है इस का उन की गर्दन पे वबाल
दे दे के जिन्हों ने माँगना सिखलाया
Gulzar
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क़लक़ और दिल में सिवा हो गया
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
हम रोज़-ए-विदाअ' उन से हँस हँस के हुए रुख़्सत
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
धूम थी अपनी पारसाई की
सुकूत-ए-दरवेश-ए-जाहिल
दिखाना पड़ेगा मुझे ज़ख़्म-ए-दिल
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
नशात-ए-उमीद
शहद-ओ-शकर से शीरीं उर्दू ज़बाँ हमारी
कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
चोर है दिल में कुछ न कुछ यारो