काँटा है हर इक जिगर में अटका तेरा
हल्क़ा है हर इक गोश में लटका तेरा
माना नहीं जिस ने तुझ को जाना है ज़रूर
भटके हुए दिल में भी है खटका तेरा
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ऐ ऐश-ओ-तरब तू ने जहाँ राज किया
क़ैस हो कोहकन हो या 'हाली'
धूम थी अपनी पारसाई की
हम रोज़-ए-विदाअ' उन से हँस हँस के हुए रुख़्सत
इंक़लाब-ए-रोज़गार
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़
तुम को हज़ार शर्म सही मुझ को लाख ज़ब्त
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
जीते जी मौत के तुम मुँह में न जाना हरगिज़