ब-मजबूरी हर इक रंज-ओ-मेहन लिखना पड़ा मुझ को
ब-मजबूरी हर इक रंज-ओ-मेहन लिखना पड़ा मुझ को
बना कर ख़ुद को मौज़ू-ए-सुख़न लिखना पड़ा मुझ को
ज़बानें जिन की क़ैंची की तरह चलती थीं शौहर पर
उन्हें शीरीं-ज़बाँ शीरीं-दहन लिखना पड़ा मुझ को
हर इक महफ़िल में जल्वों की जो रिश्वत पेश करती थीं
वो जैसी भी थीं जान-ए-अंजुमन लिखना पड़ा मुझ को
मिरी मजबूरियों ने नाज़ुकी का ख़ून कर डाला
हर इक गोभी-बदन को गुल-बदन लिखना पड़ा मुझ को
जब इक अल्हड़ बनी दुल्हन किसी बोसीदा शौहर की
तो उस के सुर्ख़ जोड़े को कफ़न लिखना पड़ा मुझ को
वो जिन की उम्र की घड़ियाँ निहायत सुस्त चलती हैं
सनद से उन की पैदाइश का सन लिखना पड़ा मुझ को
बसा-औक़ात हुर्मत भी क़लम की दाव पर रख दी
लुटेरों को मुहिब्बान-ए-वतन लिखना पड़ा मुझ को
हक़ीक़त ये है वो बच्चे न मुजरिम थे न क़ातिल थे
तो सब का क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन लिखना पड़ा मुझ को
वो बे-हँगम सी जिन को देख कर मैं तौबा करता था
ब-मजबूरी उन्हें तौबा-शिकन लिखना पड़ा मुझ को
बहुत मुश्किल था जिन को ढूँडना मेक-अप के मलबे से
सो अंदाज़े से उन का बाँकपन लिखना पड़ा मुझ को
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