मिरे ख़ुश-नज़र मिरे ख़ुश-ख़बर
ये जो रात है उसे टाल दे
मिरे गुलिस्ताँ पे निगाह कर
उसे अपना रंग-ए-जमाल दे
Anwar Masood
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Gulzar
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Mir Taqi Mir
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हवाएँ लाख चलें लौ सँभलती रहती है
उस ने आहिस्ता से जब पुकारा मुझे
ऐ दिल-ए-बे-ख़बर
न आसमाँ से न दुश्मन के ज़ोर ओ ज़र से हुआ
सोच के गुम्बद में उभरी टूटती यादों की गूँज
ये जो हासिल हमें हर शय की फ़रावानी है
हमें हमारी अनाएँ तबाह कर देंगी
बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं
याद के सहरा में कुछ तो ज़िंदगी आए नज़र
पसपा हुई सिपाह तो परचम भी हम ही थे
समुंदर आसमान और मैं