मिरे कासा-ए-शब-ओ-रोज़ में
कोई शाम ऐसी भी डाल दे
सभी ख़्वाहिशों को हरा करे
सभी ख़ौफ़ दिल से निकाल दे
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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Habib Jalib
Rahat Indori
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हवा ही लौ को घटाती वही बढ़ाती है
सर-ए-कहकशाँ मिरा अक्स हो
उस के लहजे में बर्फ़ थी लेकिन
अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा
पर्दे में इस बदन के छुपें राज़ किस तरह
कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर
दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से
उस ने आहिस्ता से जब पुकारा मुझे
सदियाँ जिन में ज़िंदा हों वो सच भी मरने लगते हैं
सरमाया-ए-जाँ
एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
हम-ज़ाद