उस के लहजे में बर्फ़ थी लेकिन
छू के देखा तो हाथ जलने लगे
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ज़रा सी बात
हवा ही लौ को घटाती वही बढ़ाती है
लहू में तैरते फिरते मलाल से कुछ हैं
अपने होने की तब-ओ-ताब से बाहर न हुए
जिस तरफ़ तू है उधर होंगी सभी की नज़रें
चेहरे पे मिरे ज़ुल्फ़ को फैलाओ किसी दिन
हरी-भरी इक शाख़-ए-बदन पर
तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
खेल उस ने दिखा के जादू के
आबला
दर-ए-काएनात जो वा करे उसी आगही की तलाश है
तश्हीर अपने दर्द की हर सू कराइए