हम-ज़ाद

कुछ किया जाए न सोचा जाए

मुड़ के देखूँ तो न देखा जाए

मेरी तंहाई की वहशत से हिरासाँ हो कर

मेरा साया मेरे क़दमों में सिमट आया है

कौन है फिर जो मिरे साथ चला आता है

मेरा साया तो नहीं!!

किस की आहट का गुमाँ

यूँ मिरे पाँव की ज़ंजीर बना जाता है

दूर ता-हद्द-ए-नज़र शहर के आसार नहीं

और दुश्मन की तरह

शाम तलवार लिए सर पे चली आती है

बोलता हूँ तो आचानक कोई

मेरी आवाज़ में आवाज़ मिला देता है

मुझ को ख़ुद मेरे ही लफ़्ज़ों से डरा देता है

कौन है जिस ने मिरे क़ल्ब की धड़कन धड़कन

अपने एहसास की सूली पे चढ़ा रक्खी है

मेरी रफ़्तार के पुर-ख़ाैफ़-ओ-ख़तर रस्ते में

किस ने आवाज़ की दीवार बना रक्खी है

संग-ए-आवाज़ की दीवार गिराऊँ कैसे

कुछ किया जाए न सोचा जाए

मुड़ के देखूँ तो न देखा जाए

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