नख़्ल-ए-अना में ज़ोर-ए-नुमू किस ग़ज़ब का था
ये पेड़ तो ख़िज़ाँ में भी शादाब रह गया
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चाहे तू शौक़ से मुझे वहशत-ए-दिल शिकार कर
ब-फ़ैज़-ए-आगही ये क्या अज़ाब देख लिया
कुछ उज़्र पस-ए-वा'दा-ख़िलाफ़ी नहीं रखते
कहो क्या मेहरबाँ ना-मेहरबाँ तक़दीर होती है
कितना ढूँडा उसे जब एक ग़ज़ल और कही
ज़मीं की गोद में इतना सुकून था 'अंजुम'
यहाँ जो ज़ख़्म मिलते हैं वो सिलते हैं यहीं मेरे
बदल चुके हैं सब अगली रिवायतों के निसाब
सितमगरों से डरूँ चुप रहूँ निबाह करूँ
अब शहर में अक़दार-कुशी एक हुनर है
ये कैसी बात मिरा मेहरबान भूल गया
हर शे'र से मेरे तिरा पैकर निकल आए