बहुत इरादा किया कोई काम करने का
मगर अमल न हुआ उलझनें ही ऐसी थीं
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दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शुऊर'
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती
सभी ज़िंदगी के मज़े लूटते हैं
वो रंग रंग के छींटे पड़े कि उस के ब'अद
ये ख़ुद को देखते रहने की है जो ख़ू मुझ में
इस में क्या शक है कि आवारा हूँ मैं
नहीं मिलते 'शुऊर' आँसू बहाते
बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है
उन की सूरत हमें आई थी पसंद आँखों से
आदमी बन के मिरा आदमियों में रहना
मैं बज़्म-ए-तसव्वुर में उसे लाए हुए था